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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१५७

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विद्यापति । १४६. राधा। ૨૬ ૨ झर झर बरिस सघन जलधार । दश दिश सबहु भेल अँधियार ॥ २ ॥ ए साख किये करेव परकार । अवजनु बारए हरि अभिसार ॥ ४ ॥ अन्तरे शाम चन्द्र परकाश । मनहि मनोभवलइनिज पाश ॥ ६ ॥ कैसने सङ्केत बञ्चव कान । सुमरइ जरजर अथिर परान ॥ ८ ॥ झलकइ दामिनि दहन समान । झम झन शबद कुलिश झनझान ॥१०॥ घर माह रहत रहइ न पार । की करव इ सब विधिन विथार ॥१२॥ चढ़ब मनोरथ सारथि काम । तोरित मिलायब नागर ठाम ॥१४॥ मन मझु साखि देत पुनु बार । कह कविशेखर कर अभिसार ॥१६॥ धार | राधा । ૨૬ ૨ आएल पाउस निविड़ अन्धार । सघन नीर वारसए जलधार ॥ ३ ॥ घन हन देखिग्र विघटित रङ्ग । पय चलइते पथिकहु मन भङ्ग ॥ ४ ॥ कोने पर आत बालभु हमार । अागुन चल अभिसारिनि पार ॥ ६ ॥ गुरुगृह तेज सयन गृह जाथि । तथिहु वधु जन सङ्का आथि ॥ ८ ॥ नदि जोरा भउ अथाह । भीम भुजङ्गम पय चललाह ॥१०॥