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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१५८

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| १५० विद्यापति । / A N / Ay-sy vvvvy4 राधा । २६४ रयनि काजर वम भीम भुअङ्गम कुलिस परए दुरवार । गरज तरज मन रोसे बरिस धन संसअ पड़ अभिसार ॥ २ ॥ सजनी वचन छड्डइते मोहि लाज । जे होएत से होश्रो बरु सबै हमे अड़िकर साहस भन देल आज ॥ ४ ॥ अपन अहित लेख कहइते परतेख हृदयक न पाइश ओल ! चॉद हरिनवह राहु कवल सह पेम पराभव थोल ॥ ६ ॥ चरन वेधित फनि हित कए मानिल धनि नेपर न करए रोल । सुमुखि पुछो तौहि सरूप कहसि मोहि सिनेह कत दुर ओल ॥ ८ ॥ ठामहि रहिअ घुमि परसे चिह्निअ भुमि दिगमग उपजु सन्देह ।। हरि हरि शिव शिव तावे जाइह जिव जावे न उपजु सिनेह ॥ १० ॥ भनइ विद्यापति सुनह सुचेतनि गमन न करह विलम्बे । राजा सिवासिंह रूपनराएन सकल कला अवलम्बे ॥ १२ ॥ माधव २६५ काजरे साजलि राति । घन भए बरिसए जलधर पॉति ॥ ३ ॥ वरिस पयोधर धार । दूर पथ गमन कठिन अभिसार ॥ ४ ॥ जमुन भयाउन नीरे । आरति धसति पाउति नहि तीर ॥ ६ ॥ विजुरि तरंगे डराइ । तौं भल कर जौं पलटि घर जाई ॥ ८ ॥ झॉखथि देव वनमाली । एहि निास कोने पर ग्राउति गोयाली।।१०।। भनइ विद्यापति बानी । तोहहुँ तह कान्ह नारि सयानी ॥१३॥