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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१५९

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विद्यापति । ठूती । २६६ पन्य पिछर निसि काजर कॉति । पातरे भै गेल दिगभराति ॥ २ ॥ चरने बेढ़ल अहि ते नहि सङ्क । सुन्दर हृदय नूपुर पुर पङ्क ।। ४ ।। कि कहब माधव पिरीति तोहारि । तुय अभिसार न जीए वरनारि ॥६॥ वराह महिस मृग पाले पलाय । देखि अनुरागिनी वाघ डराय ॥८॥ फनि मनि दीप भरमे देइ फुक । कत घेरि लागल नगिनि मुखे मुख ॥१०॥ कह कविरञ्जन करह सन्तोस । आजुक विलम्ब गमने नहिं दोस ॥१२॥ ठूती । २६७ बाट विकट फनिमाला । चउदिस वरिसए जलधर जाला ॥२॥ हे माधव वाहु तरिए नरि भागे । कतए भीति जो दृढ़ अनुरागे ॥४॥ चन छलि एकलि हरिणी । व्याधकुसुमसरे पाउलि रजनी ॥६॥ विद्यापति कवि भाने । रूपनरायन नृप रस जाने ॥८॥