पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६७

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विद्यापति । १५६.

सखी । अवहु राज पथे पुरुजन जागि । चॉद किरन जग मण्डल लागि ॥२॥ सहए न पारय नव नव नेह । हेरि हेरि सुन्दर पड़लि सन्देह ॥४॥ कामिनि कयल कतहुँ परकार । पुरुपक वेश कयल अभिसार ॥६॥ धम्मिल लोल झूट करि वन्ध । पहिरल वसन आन करि छन्द ॥८॥ अम्बरे कुच नहि सम्बरु भेल । बाजन यन्त्र हृदय करि लेल ॥१०॥ ऐसन मिलल कुञ्जक माझ । हेरि न चिह्नइ नागर राज ॥१२॥ हेरइते माधव पड़लहि धन्द । परशि भाङ्गल हृदयक दृन्द ॥१४॥ भनइ विद्यापति सुन बर नारि । दृध समुद जनि राजमरालि ॥१६॥ -०.--- माधव । ३१२ राहु मेघ भए गरसल सूर । पथ परिचए दिवसहि भेल दूर ॥२॥ नहि बरिसए अवसर नहि होए । पुर परिजन सञ्चर नहि कोए ॥४॥ चल चल सुन्दरि कर गए साज । दिवस समागम सपजत आज ॥६॥ गुरुजन परिजन डर कर दूर । विनु साहसें अभिमत नहि पूर ॥८॥ एहि संसार सार बथु एह । तिला एक सङ्गम जाव जिव नेह ॥१०॥ भनइ विद्यापति कवि कण्ठहार । कोटिहु न घट दिवस अभिसार ॥१२॥