पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१८१

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विद्यापति । १७३ राधा की मान । राधा । लोचन अरुन चुकल बड़ भेद । अनि उजागर गरु निवेद ॥ ३ ॥ ततहि जाह हरि न करह लाथ । अनि गमलह जन्हिके साथ ॥४॥ कुच कुङ्कमे माखल हिश तोर । जनि अनुरागे रॉगि करु गोर ।। ६ ।। अनके भूपने तोर कलङ्क । चड़े ओ भेद मन्देओ परसङ्ग ॥ ८ ॥ चिट गुड़े चुपडलि राड़क पोरि । लओले लोथे वेकत भेल चोरि ॥१०॥ भनइ विद्यापति बजबाहु बाध । वडाक अनय मौन पय साध ॥ १३ ॥ राधा । कुङ्कम लोलह नख खते गोइ । अधरे विकाजर अयलाहे धोइ ॥ २ ॥ तइभो न रहल कपट चुधि तोरी । लोचन अरुने बेकत भेल चोरी ॥ ४ ॥ चल चल कन्हाइ बोल जनु आने । परतख चाहि अधिक अनुमाने ॥ ६ ॥ जानो प्रकृति बुझनो गुनशीला । जस तोर मनोरथ मनसिज लीला ॥ ६ ॥ धन सौं जउबन छइलओ जाती । कामिनि बिनु कइसे गेलि मधुराती ॥१०॥ बचने नुकोयह बेकतेो काजे । तोहे हसि हेरह हम बडि लाजे ॥१२॥ अपथ सपथ चुझावह राधे । कोने पर खेम सठ अपराधे ॥१४॥ भनई विद्यापति पिये अपराधे । उदघट न कर मनोरथ चाधे ॥ १६ ॥ देवसिंह सुत एहो रस जाने । राए सिवसिंह लखिमा देवि रमाने ॥१८॥