पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१३

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विद्यापति । १६६ ज अछ हृदया मिलत समाज । अवसओ रहब आधि भइ लाज ॥१२॥ काच धटी अनुगत जन जेम । नागर लखत हृदय गत पेम ॥१४॥ मधुर वचन हे सबहु तह सार । विद्यापति भन कवि कण्ठहार ॥१६॥ सखी । ३८६ दुरजन दुरनए परिनति मन्द । ता लागि अवस करिअ नहि दन्द ॥ २ ॥ हठे जो करबह सिनेहक ओल । फूटल फटिक वलय के जोल ॥ ४ ॥ साजन अपने मन अवधार । नख छेदन के लाव कुठार ॥ ६ ॥ जतने रतन पए राखब गोए । तें परि ॐ परबस नहि होए ॥ ६॥ परगट करब न सुपहुक दोस । राखब अनुनय अपन भरोस ॥१०॥ भनइ विद्यापति परिहर धन्ध । अनुखन नहि रह सुपहु अनुबन्ध ॥१२॥ राधा । ३६० अति नागर बोलि सिनेह बढाओल अवसर बुझलि बड़ाइ । तेलि बडद थान भल देखिअ पालेव नहि उजिआइ ॥२॥ दृती बुझल तोहर बेवहार । नगर सगर भमि जोहल नागर भेटल निछछ गमार ॥४॥ गुञ्ज आनि मुकुता तोहे गॉथल कएलह मन्दि परिपाटी । कञ्चन चाहि अधिक कए कएलह काचहु तह भेल घाटी ॥६॥