पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१४

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२०० विद्यापति । सब गुन अगर सब तहु सुनल ते हमे जाओल नेहे । फल कारने तरु अवलम्बल छाहेरि भेल सन्देहे ॥८॥ राधा । | ३६१ हृदय कुसुम सम मधुरिम बानी । निअर अएलाहु तुअ सुपुरुष जानी ॥२॥ अबे कके जतन करह इथि लागी । कञीन मुगुधि आलिङ्गति आगी ॥४॥ चल चल दूती की बोलब लाजे । पुनु पुनु जनु आबह अइसन काज ॥६॥ नयन तरङ्के अनड़ जगाई । अवलो मारन जान उपाई ॥ दिढ़ आसा दए मन विघटावे । गेले अचिरहि लाघव पाव ॥" भनइ विद्यापति सुनह सयानी | नागर लाघव न करिअ जाना ""

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। राधा । ३६.२ हारे परसङ्ग न कर मझ आगे । हम नहि नायर भया माधवे ला जकर मरमे वैसय बरनारी । ता सर्ने पिरिति दिवस दुइ चारि ॥ ४ पहिलहि न बुझल एत सव बोल। रूप निहारि पड़ि गेल । आन भावइते विहि शान फल देल। हार भरमें भुजङ्गम * ऐ सखि ए सखि जव रहें जीव । हरि दिगे चाहि पानि नहिं पनि । हम जो जानित कानुक रीत । तव किय तो सञो वैधय चार हरिनी जानय भल कुटुम्ब विवाध। तब व्याधक गीत सुनइत कर सोच भनइ विद्यापति सुन चरनारि । पानि पिये किय जाति विचार 'हारे पड़ि गेल भोल ॥ ६ ॥ भरमें भुजङ्गम भेल ॥ ८॥ है पानि नहि पीव ।।१०॥ वा सो वाधय चीत ॥१२॥ 1 सुनइत करु साध ॥१४॥ 1 किय जाति विचारि ॥१६॥