सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । ३०१ । शधा । ३६३ सखि हे बूझल काह्न गोआरे । पितड़क टार काज दुहुँ कान लह ऊपर चक मक सारे ॥२॥ हम त कएल मन गेलहि होयत भल हम छल सुपुरुख़ भाने । तोहरे वचन सखि कएल ऑखि देखि अमिय भरमे विष पाने ॥४॥ पसुक सङ्ग हुनि जनम गमाल से कि बुझथि रति ग्ड़े। मधु यामिनी मोरि जे निफले गाल गोप गमारक सड़े ।।६।। तोहरे वचने कूप धस जोरल ते हमे गेलिहु अवाटे ।। चन्दन भरमे सिमर आलिङ्गल साल रहल हिय कॉटे ॥८॥ भनइ विद्यापति हरि बहुवल्लभ कएल वहुत अपमाने । राजा शिवसिंह रूपनरायन लखिमापति रस जाने । राधा। ३६४ से बर सठगुण गुरुगण गुरुतर अछु गुन जलनिधि सार । हम अबला जाति ताहि दुखमति कइसे पाइअ पार ॥२॥ सजनि अरु कत कर परलाप । से मझु जइसन करलहि अपमान से वडे हृदयक ताप ॥४॥ जे वरनारि सार करि लैल से पद सेवउ आनन्दे । तकर लागि जागि दिन रोअउ पीवउ से मकरन्दै ॥६॥ 26 । ।