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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१६

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विद्यापति । ताहि लागि अन पानि सब तेजउ जप करु तकर नाम ।। चम्पति पति कह सेहे जुवति वर गावउ तसु गुन गामि ॥८॥ राधा । ३६५ मधु सम वचन कुलिस सम मानस प्रथमहि जानि न भेला । अपन चतुरपन पिसुन हाथ देल गरुअ गरब दुर गेला ॥२॥ सखि हे मन्द पेम परिनामा । बड़ कए जीवन कएल पराधिन नहि उपचर एक ठामा ॥४॥ झापल कूप देखहि नहि पारले आरति चललहु धाइ ।। तखनुक लघु गुरु किछु नहि गुनले आवे पचतावके जाइ ॥६॥ एत दिन अछलाहु अनि भाने हमे आवे वूझल अवगाहि । अपन मुर अपने हमे चॉछले दोख देव गए काहि ॥८॥ भनइ विद्यापति सुन वर जउवति चिते नहि गनव आने । पेमक कारन जिउ उपेखिय जग जन के नहि जाने ॥१०॥ राधा ।। ३६.६ पहिलहि चान्द कला देल आनि । झापल शैल शिखर एक पानि ॥२॥ अब विपरित भेल से सब काल । वासि कुसुम किए गॉथिय माल ॥४॥ न बोलह सजनि न बोलह आन । कीं फल अछय भेटव कान ॥६॥ अन्तर वाहिर सम नह रीति । पानि तैल नह निविड़ पिरीते ॥६