पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१७

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विद्यापति । हिय सम कुलिस वचन मधुधार । विप घट उपर दुध उपहार ॥१०॥ चातुरि वेचह गाहक ठाम । गोपत पेम सुख इह परिनाम ॥११॥ तुइ किन जानसि कि बोलब तोय । विद्यापति कह समुचित होय ||१४|| राधा । ३६७ प्रेमक गुण कई सव कोइ । जे प्रेमे कुलवति कुलटा होइ ॥२॥ हम यदि जानिए पिरीति दुरन्त । तव किये पाओब पापक अन्त ।।३।। अब सब विष सम लागयमोइ । हरि हरि पिरीति करय जनु कोइ ।।६।। विद्यापति कह सुन वरनारि । पानि पिये पाछे जाति विचारि ॥८॥ ठूती । ३६६ दुतिक वचन न सुनल राहीं । अपन मनहि विचारले ताही ॥३॥ कान्हुक तुन केश धरु तसे आगे । तचहुँ सुधा मुखि नहि अनुरागे ।।४।। कत कत विनति कय कह वानी । मानिनि चरने पसारल पानी ॥६॥ सुन्दरि दूर कर असमय मान । इह सुख समय मिलल वर कान ॥८॥ तेजि नागर शो सुख पजे । तुय लागि लुठइ केलि निकुञ्ज ।।१०।। खेम अपराध चलह सोइ ठाम । इह सुख जानि समय अनुपाम ॥१२॥