पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४८

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बघcil

राधा । जे छल से नहि रहले भाव । बोललि बोल पलटि नहि आव ॥ २॥ । रोस छुड़ाए बढ़ाओल हास । रूसल वन्नोसव बड़ परेआस ॥ ४ ॥ कओने परि से हरि बहूडत । माइ हे कोने परी ॥५॥ नारि सभाव कएल हमे मान । पुरुस विचखन के नहि जान ॥ ७॥ आदरे मोरा हानि गए भेल । वचनक दीसे पेम टुटि गेल ॥ ६ ॥ नागरे नागरि हृदयक मेलि । पॉचवान वले वहुड़त केलि ॥१॥ अनुनय मोरि बुझाउवि रोए । वचनक कौशले की नहि होए ॥१३॥ हुय चतुराई ॥ ४ ॥ दूती शिक्षा । ४६२ हरि वड़ गरवी गेप माझे बसह। ऐसे करब जैसे वैरि न हसइ ॥ २ ॥ परिचय करब समय भल चाइ । आज बुझब सखि तुय चतुराई ॥ पहिलहि वैसव श्याम कए वाम । सङ्केत जनाओब मुझु परनाम पुछइते कुशल उलटायब पानि । वचन न बान्धव सुनह सयानि ।। हरि याद फेरि पुछय धनि तोय। इड़िते वेदन न जनायव मा जैव चिते देखव वड़ अनुराग । तैखने जनायव हृदय जान लाग सवागन गनइते तुहुँ से सयानी । तोहे कि सिखायव चतुरिम बानी ।।१४ व इह रस भान । मान रहुक पुनु जाउ पनि ॥१६॥ श्रीब मुझ परनाम ॥ ६ ॥ विद्यापति कवि इह रस भान । मान रहुक 3 ' . ---------