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विद्यापति । २४७ राधा । ४८८ वचन अमिञ सम मने अनुमानि । नियर अएलाहु तुअ सुपुरुप जानि ।।२।। तसु परिनति किछु कहहि न जाए । सूति रहल पहुं दीप मिझाए ॥४॥ | ए सखि पहु अवलेप सही । कुलिस अइसन हिअ फाट नहीं ॥६॥ | करे जुगे पररास जगायोल भाव । तइअ न तेज पहु नीन्द सभाव ॥८॥ | हाय झपाए रहल मुह लाए । जगइते निन्द गेल न हो जगाए ॥१०॥ राधा। ४८६. अपनेहि अइलिहु कएल अकाज । मान गमाओल अरजल लाज ॥२॥ | आदर हल बहल सुख सौभ । राङ्क न फावए मानिक लोभ ॥४॥ ए सखि ए सखि कि कवि तोहि । दिवसक दोसे दुश्सस भेल मोहि ॥६॥ हरि न हेरल मुख सएन समीप । रोसे वसाल चरनहि दीप ॥८॥ | चइसि गमाओल जामिनि जाम । कि करव भावि विधाता वाम ॥१०॥ राधा । ४६० दिने दिने बाढए सुपुरुष नेहा । अनुदिने जैसन चान्दक रेहा ॥२॥ जे छल आदर तकरहु आधे । आोर होएत की पछिलाहुवाधे ॥४॥ विधिवसे जदि होअ अनुगति वाधे। तैअग्रो सुपहु नहि धर अपराधे ॥६॥ पुरत मनोरथ कत छल माधे ।वे कि पूछह सखि सबभेलवाधे ॥८॥