सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| २४८ विद्यापति ।। सुरतरु सेओल भल अभिमतलागी। तसु दुखन नहि हमाह अभागी ॥१०॥ भनइ विद्यापति सुनह सयानी । आओत मधुरपति तुअ गुन जानी ॥१२॥ राधा । ४६१ प्रथम प्रेम हरि जत बोलले अदरो न भेल । चोलल जनम भरि जे रहत दिने दिने दुर गेल ॥२॥ कि देहु मोर अविनय परल कि मोर दीघर मान । कि पर पेअसि पिसुन वचन तथी पिआने देल कान ।।४।। साजन माधव नहि गमार । पेमे पराभव बहुत पात्रोल करम दोस हमार ॥६॥ कत वोलि हरि जतने सेओल सुरतरु समे जानि ।। अनुभवे भेल कपट मन्दिर आवे की करव आनि ॥८॥ सुपहुक वचन वजर सम में हिअ रेख लेल भान । अपना भासा वोलि विसरए इथि कि वोलत आन ॥१०॥ ---::---- राधा । ४६२ करञो विनअ जत जत मन लाइ । पि परिठव पचतावके जाइ ॥२॥ धन धइरज परिहरि पथ साचे । करम देसे कनकेओ भेल काचे ॥३॥ निठुर वालम्भु सञौलाल सिनेहे । न पुर मनोरथ न छाड, सन्१९ " सुपुरुस भाने मान धन गेल । हृदय मलिन मनोरथ भेल ॥८॥ न त का