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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२९२

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२७४
विद्यापति ।

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२७४ विद्यापति । सखी । सुन्दरि अछाले साखगण सङ्ग । चञ्चल विघटय कमीन अङ्ग ॥ २ ॥ अवनतबयनि बसन नहि हेरि । धनि भुञ्ज वल्लि झाप कत बेरि ॥ ४ ॥ । अतनु पासे दृढ़ कए दए अम्बु । कापे काम जनि बॉधल सम्भु ॥ ६ ॥ विहि विधुमण्डल मुख शाश आनि । तौलि तेलाचे दुयो अनुमानि ॥६॥ आनन गुन गैरव नत भेल । चॉद चमार्क तेहि अम्बर गेल ॥१०॥ सखी । ५४४ राधा वदन निरखि रह कान । भावे भरल अङ्ग धरल धियाने ॥२॥ राहि बुझल तसु मरमक बाल । बाहु पसार कान्हु कर कार ॥४॥ अधर सुधारस पुनु पुनु पीव । सखीगण हेरइते जीवन जीव ॥६॥ सखी । ५४५ जे मुख सुन्दर अतुलन नाम । जसु परसादे जितलि जग काम ।" से मुख किए मुकुर तल देल । अपन पराभव अपनहि भेल ॥४॥ तुहु अति विदगध बधइते लाख । हेरि अवस भेलि अपन कटाख ॥६॥ जकर जे गुन से नहि जान । लाहकार किए चिन्हय कृपाने ।।