पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३१७

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विद्यापति । विपरित रमन रमए वरनारि । रति रस लालसे मुग्ध मुरारि ॥६।। चुम्बने कुरए कलामति केलि । लोचन नाह निमिलित हेरि ॥८॥ |ता हु रूप ताहि परथाच । उदय वान दुहु जैसन सभाव ॥१०॥ राधा । ५८६. वसन हरइते लाज दुर गेल । पिंक कलेवर अम्वर भेल ॥ २ ॥ शेधे मुहे निहारिए दीव । मुदला कमल भमर मधु पीव ॥ ४ ॥ मनमथ चातक नहीं लजाए । वड उनमति अवसर पाए ॥ ६ ॥ से सवे सुमरि मनहू की लाज । जत सवे विपरित तहि कर काज ॥ ८ ॥ हृदयक धाधन धसमस माहि । आऔर कहब कि कहिली तोहि ॥१०॥ सखी । ५६.० मदन पावए अलकक भार । चान्दमडल जनि मिलए अन्धर ॥ ३ ॥ म्वत सोभए हार विलोल । मदित मनोभव खेत हिडोल ॥ ४ ॥ अतम अभिमत भने अवधारि । रति विपरित रतलि वर नारि ॥ ६ ॥ $नि कर मधुरि वाज । जनि जएतुर मनोभव राज ॥ ६ ॥ । निहारि अधर मध पीव । नाञी कुसुमसर आक्ट जीव ॥१०॥