पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३३३

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विद्यापति । राधा। सेओल सामि सब गुन आगर सदय सुदृढ़ नेह । तहु सवे सवै रतन पावए निन्दहु मोहि सन्देह ॥२॥ पुरुख वचन हो अवधान । ऐसन नहि एहि महिमण्डल जे परवेदन जान ॥४॥ नहि हित मित कोऊ वुझावए लाख कोटी तोहे सामी । सवक असा तोहे पुरावह हम विसरह काशी ।६।। राधा । ने जानल कोन दोसे गेलाह विदेस । अनुखने झखइते तनु भेल सेस ॥२॥ वृकहि न पारल निअ अपराध । प्रथमक प्रेम दुइवे करु बाध ॥४॥

  • एक दइव दाहन जञो होए । निरधन धन जके धरव मोजे गोए ॥ भनई विद्यापति सुन वरनारि । धइरज कए रद्द मिलत अ

राधा । दारुन कन्त निठुर हिअ सखि रहल विदेस । को नहि हित मुझ सश्चरए जे कहत ऊपदेस ॥२॥ ऐ सखि हरि परिहरि गेज निज न चुझीय दोस । करम विगत गति माह हे काहि करवो रोस ॥४॥ न।