पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३३५

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विद्यापति । ३१ राधा । सेओल सामि सवे गुन आगर सदय सुदृढ़ नेह । तहु सवै सवै रतन पावए निन्दहु मोहि सन्देह ॥२॥ पुरुख वचन हो अवधान । ऐसन नहि एहि महिमण्डल जे परवेदन जान ।।४।। नहि हित मित कोऊ वुझावए लाख कोटी तोहे सामी । सवक आसा तोहे पुरावह हम विसरह काञी ॥६॥ राधा । ६३२ न जोनल कोन दौसे गेलाह विदेस } अनुखने झखइते तनु भेल सेस ॥२॥ ६ ने पारतं नि अपराध । प्रथमक प्रेम दुइवे करु बाध ॥४॥ * इव दान जो होए । निरधन धन जके घरव भोळे गोए ॥ | सुन वैरनार । धइरज कए रह मिलत मुरारि ||८|| भनइ विद्यापति सुन धरनारि । धइज के राथी । न कन्त निठुर हिअ सखि रहुल विदेस । का नहि हित मझ सशरए जे कहत अपदेस ॥२॥ ऐ सखि हरि परिहरि गेज निज न युझीय सि । करम विगत गति माह है फाई करवो रोस }}}}