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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४१०

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विद्यापति । पीरिति गुन विपरीत होए साए विसरि न कर नाह । दिवस दोसे से की नहि सम्भव पम परानहु चाह ॥१२॥ भनइ विद्यापति सुन तळे जुवति रस नहि अवसान । राजा सिरि सिवसिंह जिवो लाखमा देवि रमान ॥१४॥ दूती । ७७३ मोरि अविनए जत परल खेोव तत चिते सुमरवि मोरि नामे । मोहि सनि अभागनि दोसरि जनु हो तन्हि सने पहु मिल कामे ॥२॥ माधव मोरि सखि समन्दल सेवा । जुवति सहस सङ्गे सुख विलसव रङ्गे हम जल आजुरि देवा ॥४॥ पुरव पेम जत निते सुमरव तत सुमर जत न होअ सेखे ।। रहए सरिर जो कीन मुँजिअ तो मिलए रमनि सत संखे ॥६॥ पेअसि समाद सुनिए हरि विसमय करु पाए ततहि वेरा । कवि भने विद्यापति राजा रूपनराएन लखिमा देवि सुसेरा ॥८॥ --- - दूती । ৩৬৪ धटक विहि विधाता जानि । काचे कञ्चने छाउलि आनि ॥ २ ॥ कुच सिरिफल सञ्चा पूरि । कुँदिवइसाबेल कनक कटोरि ॥ ४ ॥