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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४१६

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३६६ विद्यापति । दूती । ৩৩ माधव कत परबोधव राधा । । हा हरि हा हरि कहतहि, वेरि वैर अब जीउ करव समाधा ॥२॥ धरणी धरिय धनि जतनहि वैसत पुनहिं उठए नहिं पारा । सहजहि विरहिनि जग माहा तापिनि वैरि मदन शरधारा ॥४॥ अरुण नयन नोरे तीतल कलेवर विलुलित दीघल केशा । मन्दिरे वाहिर करइते संशय सहचरी गणतहि शेषा ॥६॥ आनि नलिनि केश्रो रमनि सुतायोलि केयो देइ मुखपर नीरे । निसवद पेखि केओ सास निहारय के देइ मन्द समीरे ॥८॥ कि कहव खेद भैद् जनि अन्तर घन धन उतपत श्वास ।। भनइ विद्यापति सेहो कलावति जीवन चन्धन आश पाश ।।१०।। दूती । *७८८ सखिगन कन्दरे थोइ कलेवर घर सजे वाहिर होय । विनि अवलम्बने उठए न पारइ अतए निवेदल तोय ।।२।। माधव कत परबोधवं ओहि । देह दिपति गेल हार भार भेल जनम् गमाओल रोइ ॥४॥