सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । भनइ विद्यापति सुनह नागर चिते न मानह आन । दिवस थोर वाह मिलव नागरि मने गुनि इह जान ॥८॥ -- ---- दुती । ७६३ अनुखन माधव माधव सुमरइत सुन्दरि भैलि मधाइ । ओ निज भाव सोभावाहि विसरल अपन गुण लुबधाइ ॥२॥ माधव अपरुव तोहर सिनेह ।। अपन विरहे अपन तनु जर जर जिवइते भैलि सन्देह ॥४॥ भोरहि सचर कातर दिठि हरि छल छल लोचन पानि । अनुखण राधा राधा रटतहिं आधा आधा वानि ॥६॥ राधा मञो जब पुनतहि माधव माधव सञो जव राधा । दारुण प्रेम तवहि नहि टूटत वाढत विरहक बाधा ॥८॥ दुहु दिश दारुदहने जैसे दुगधइ याकुल कीट परान । ऐसन वल्लभ हेरि सुधामुखी कवि विद्यापति भान ॥१०॥ राधा । ७६३ रितुराज आज विराज हे सखि नागरी जन वन्दिते । नवरङ्ग नबदल देखि उपवन सहज शेभित कुसुमिते ॥२॥ 51