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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४६

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| ३६ विद्यापति ।

राधा । ७० मनमथ तोहे कि कहब अनेक । दिति अपराध पराण पय पीड़ासि ई तुय कोन विवेकं ॥ २ ॥ दाहिन नयन पिशुन गण वारण परिजन वामहि आध। श्राध नयन कोने यव हरि पेखल ताहि भेल एत परमाद ।। ४ ।। पुर वाहिर पय करत गतागत के नहि हेरत कान । तोहर कुसुम शर कतहुँ न सञ्चर हमर हृदय पॉच वान ॥ ६ ॥ राधा । आध नयन कए तहु केर अाध । केतवे सहध मनसिज अपराध ॥ २ ॥ का लागि सुन्दर दरसन भैल । जेओ छल जीवन से दूर गेल ॥ ४॥ हरि हरि कझोन कएल हमे पाप । जे सबै सुखद ताहि तह ताप ॥ ६ ॥ सब दिसि कामिनि दरसन जाए । तइओ वेधि बिरह अधिकाए ॥८॥ कझोनक कहब मेदिनि से थोले । शिव शिव एहि जनम भेल ओल ॥१०॥


---- राधा ।

एहि बाटे माधव गेल रे । मोहि किछ पुॐिओ न भैल रे ॥ २॥ माधुर जाइत जमुना तीर रे। आन्तर भेटल अहीर रे ॥ ४ ॥ मअनहु नयन जुझाए रे । हृदय न भेल बुझाए रे ॥ ६ ॥ मोहि छल होएत रतिरङ्ग रे। मधुर मधुरपति सङ्गे रे ॥८॥ चिकुर ने भेल संभारि रे । बुझलिहु कान्हे गोरि रे ॥१०॥