सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । »»»»»»»» »w• •••••••••• • •••••••••••• •••*

  • ••• ""

सखी से सखी । जखने दुहुक दीठि बिछुडलि दुहु मने दुख लागु ॥ दुहुक सी दीप मिझाएल मदन आँकुर भॉगु ॥ २ ॥ बिरह दहन दुहु सँतावए दुहु समीहए मेली ।। एकक हृदय अोके न पाओल ते नहि फाउलि केली ॥ ४ ॥ बाम नयना जो भेल दूते ओ दाहिन रहु लजाइ । चेतन चेतन गुपुति पिरिति पर कहहु न जाइ ॥ ६ ॥ जइ नवचन्द पुरन्दर अन्तर चन्दन तासु समाने । दसमि दसा पथ अॅगिरञो न करो तेसर काने ॥ ८ मोहन सेर मनोभवे साजल तनु पसाहल आगी । बिनु अवसरे की सखि वलति पुनु दरसन लागी ॥ १० ॥ सीतलि उकुति जेहो जुगुति समदल छल आने । अव सॉना जानि कन्हाई मानि हल धनि धाने ॥ १२ ॥ दप्पन मुख प्रतिबिम्ब नाञी वेकत भेल विकारे । पुनुक असा काम पुरावो भने कवि कण्ठहारे ॥ १४ ॥ हरि सरीसे जगत जानिअ रूपनरायन रन्ता । राए सिवसिंह सुचिरे जीवो लखिमा देवि सुकन्ता ॥ १६ ॥ (३) समीहए=अभिलाष करता है ।। (४) फाडलि=प्राप्त हुआ। (७-८) यद्यपि खालचन्द्र शिव के ललाट में रहता है, तथापि अकाशस्थित पूर्णचन्द्र उसके तुम नहीं, अर्थात् व्यक्त प्रेम गुप्त प्रेम के तुल्य नहीं। राधा दशमी दशा (मृत्यु) स्वीकार फरेगी परन्तु मनोभाव प्रफाश नहीं करेगी। (११) समदल =साद दिया था। (१५) रन्ता=राजा । ।