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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४८१

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विद्यापति । कपट मह पडु, कलेवर गिड़ल मअन गोहे । भल मन्द सचे किछु न गुनल जनम चहल मोहे ॥४॥ कएल उचित भेल अनउचित मने मने पचतावे ।। आवे कि कुरव सिरे पए धुनव गेल दिना नहि आवे ॥६॥ अपथ पथ चरन चलाल भगति मन न देला ।। परधनि धन मानस वाढ़ल जनम निफले गेला ॥८॥ चरित चातर मन वेाकुल मोर मोर अनुबन्धा । पुत कलत सहोदर बन्धव अन्तकाल सबे धन्धा ।।१०।। भन विद्यापति सुनह शङ्कर कइलि तोहरि सेवा । एतए जे बरु से वरु करच औतए सरन देवा ॥१३॥