पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४८२

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३४८ विद्यापति । । । । गङ्गा गीत । ।। १ ।' बड़ सुख साधे पाओल तुय तीरे । छाड़इते निकट नयन वह नीरे ।। २ ।। कर जोड़ि विनम विमल तरङ्गे । पुन दरसन होइह पुनमति गङ्गे ॥ ४ ॥ एक अपराध खेमव मोर जानी । परशल माए पाए तुय पानी ॥ ६ ॥ कि करब जप तप जोग धेशाने । जनम कृतारथ एकहि सनाने ॥ ८ ॥ भनइ विद्यापति समद तोही । अन्तकाल जनु विसरह मोही ॥१०॥



| सुरसुरि सेवि मोरा किछुओ न भेला पुनमति गङ्गा भगीरथ लय गेला ॥ २ ॥ जखन महादेव गङ्गा कयल' दाने । सुन भेल जटा औमलिन भेलचाने ॥ ४ ॥ उठवह वनिओ तो हाट वजारे । एहि पथ आयोत सुरसुरिं धारे ॥ ६ ॥ | छोट मोट भगीरथ छितनी कपारे । से कोनालाओताह सुरसरि धारे ॥ ८ ॥ विद्यापति भन विभल तरङ्गे । अन्त शरन देव पुनमति गङ्गे ॥१०॥ ब्रह्म कमण्डलु वास सुवासिनि सागर नागर गृहवाले । पातक महिप विदारण कारण धृत करवाल वीचिमाले ॥२॥ जय गङ्गे जय गङ्गे शरणागत भय भङ्गे ॥४॥ ||