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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५०

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४२ विद्यापति ।।

सखी से सखी । ७७ जुवति चरित बड़ विपरीत बुझए के दुहु पार । बुझए चेतन गुन निकेतन भुलल रह गमार ॥ २ ॥ साजनि नागरि नागर रङ्ग । सङ्गहि रहिअ तेसर न बुझ लोचन लोल तरङ्ग ॥ ४ ॥ वलित बदन बाङ्क बिलोकन कपटे गमन मन्दा । दुइ मन मिलल ठाम अंकुरल पेम तरुअर कन्दा ॥ ६ ॥


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ठूती । ७८ कर किसलय सयन रचित गगन मडल पेखी । जनि सरोरुह अरुन सुतल बिनु बिरोधे उपेखी ॥ २ ॥ नच घन जो निर बरीसए नयन उज्जल तोरा ।। जनि सुधाकर करें कवलित अमिय बम चकोरा ॥ ४ ॥ कह कमल बदनी । कमने पुरुसे हर अराधिअजस कारन तोळे खिनी ॥ ६ ॥ उत्तङ्ग पीन पयोधर उपर लखिअ अधर छाया । कनक गिरि पवार उपजल वाषु मनोभव माया ।। ८ ।। तौं पुनु से नारि बिरहे झामर पलटि परलि बेनी ।। सॉस समीरन पिचए धाउलि जनि से कारि नगिनी ॥ १० ॥ भन विद्यापति सुनह जङवति सरूप मोर बचना । अपने मना थिर पए चाहिये परे विवचने काना ॥ १२ ॥ (८) पापु-श्रेष्ठ ।