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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७४

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विद्यापति । । ••••• • • • • • • • ••••••••••••••• दूती । अपनहि नागरि अपनहि दूत । से अभिसार न जान बहूत ॥ ३ ॥ की फल तेसर कान जनाए । नव नागर नयने बझाए ॥ ४ ॥ ए सखि राखहिसि अपनुक लाज । परक दारे करह जनु काज ॥ ६ ॥ परक दुआरे करिअ जो काज । अनु दिन अनुसने पाइअ लाज ॥८॥ दुहु दिस एक सञो होइक विरोध । तकरा बजइते कतए निरोध ॥१०॥


- - ठूती । १३२ शुन शुन ए सखि वचन विशेस । आज हम देब तोहे उपदेश ॥ २॥ पहिलहि वैठवि शयनक सीम । हेरइते पिया मुख मेडिबि गम ।। ४ ।। परशइते दद्द करे बारवि पानि । मौन रहबि पहु, करइते बानि ॥ ६ ॥ यव हम सोपव करे कर आपि । साधसे धरवि उलट मोहे कॉपि ॥८॥ विद्यापति कह इह रस ठाट । काम गरु भए शिखाशोब पाठ ॥१३॥