पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति ।

} राधा । १३५ न जानिय पेम रस नहि रति रङ्ग । कैसे मिलव हम सुपुरुख सङ्ग ॥ २ ॥ तोहर बचने जब करव पिरीति । हम शिशुमति अति अपयश भीति॥ ४ ॥ सखि हे हम अब कि बोलवतोय । ता सञ रमस कबहु नहि होय ॥ ६ ॥ से वर नागर नव अनुराग । पाँचगर मदन मनोरथ जाग ॥ ८ ॥ दरशने आलिङ्गन करव सोई । जिउ निकसच जब राखब कोई ॥१०॥ विद्यापति कह मिथइ तरास । सुनह ऐसे नह तकर विलास ॥१२॥ दूती । काहे डरसि सखि चलु हम सङ्ग । माधव नहिं परशच तुय अङ्ग ॥ २ ॥ इह रजनी फुल कानन माझ । के एक फिरत साज चहुं राज ॥ ४ ॥ कुसुमक घोर धनुक धरि पानि । भारत शर बाला जन जानि ॥ ६ ॥ अतए चलह सखि भितर कुंज । यहाँ रह हरि महावल पुंज ॥ ८ ॥ एत कहि नल धनि हरि पास । पूरल वल्लभ सख अभिलास ॥१० ।।