पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७७

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विद्यापति । ७१। ठूतो। परिहर मने किछु न कर तरास । साधस नहि कर चल पिय पास ॥ २ ॥ दुर कर दुरमति कहलम तोय । बिनु दुख सुख कबहु नहि होय ॥ ४ ॥ | तिल आध दुख जनम भरि सुख | इथे लागि धनि कि होइय बिमुख ॥ ६ ॥ तिला एक मुनि रहु दु नयान । रोगि करय जनि औखध पान ।। ८ ।। वित चल सुन्दरि करह सिङ्गार । विद्यापति कह एहि से विचार ॥१०॥ दूती । | सयन सीम रहि आवे । दुर कर से सव सकल सभाचे ॥ २ ॥ मुख अवनत तेज लाजे । कत महि लिखसि चरन बेजे ॥ ४ ॥ रामा रह पिया पासे । अभिनव सङ्गम तेजह तरासे ॥ ६ ॥ पिा सञो पहिलाके मेली । हाउ कमल के अल केली ॥ ६ ॥ तरतम तने कर टूरे । छैल इहि छोड़ह मोर चीरे ॥१०॥ विद्यापति कवि भासा । आभनव सङ्गम तेजह तरासा ॥१२॥