पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/८७

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विद्यापति । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww सखी । १५७ वामा बयन नयन बह नौर। कॉप कुरङ्गनि केसरि कोर ॥२॥ एके गह चिकुर दोसरे गह गम । तेसरे चिबुक चउठे कुच सीम ॥४॥ निवि वन्द फोएक नहि अवकास । पानि पचमके बाढलि आस ।।६।। राधामाधव प्रथमक मेलि । न पुरल काम मनोरथ केति ॥८॥ भनइ विद्यापति प्रथमक रीति । दिने दिने वाला वुझति पिरीति ॥१०॥


सखी । १५८ | वारि विलासिनि कुल कान्ह । मदन कौतुकिया हटल न मान ।।२।। एके धनि पदुमिनि सहजहि छोटि । करे धरइते करुणा कर कोटि ॥४॥ हठ परिरम्भणे नहि नहि बोल । हरि डरे हरिणी हरि हिये डोल ॥६॥ नयनक अञ्चल चञ्चल भान । जागल मनमथ मुदित नयान ॥८॥ विद्यापति कह ऐसन रग । राधामाधव पहिलहि संग ॥१०॥