पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१०५

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विनय-पत्रिका १०८ दासतुलसी खेदपिन्न, आपन्न इद, शोकसंपन्न अतिशय सभीत। प्रणतपालक राम, परम करुणाघाम पाहि मामुर्विपति, दुर्विनीत ॥९॥ भावार्थ-हे श्रीरामजी ! आप दानवोंके नाशकर्ता, दयाके समुद्र, दम्भ दूर करनेवाले, दुष्कृतोंको भस्म करनेवाले ओर दर्पको हरने- वाले हैं, आप दुष्टताका नाश करनेवाले, दमके स्थान अर्यात जितेन्द्रियोंमें श्रेष्ठ, दुखोंके समूहको हरनेवाले और कठिन तया बुरी वासनाओंके विनाशक हैं ॥ १ ॥ आप अनेक अलंकार धारण किये, सूर्यके समान प्रकाशमान ऐश्वर्यादि छः दिव्य गुणोंसे युक्त, संसारसे छुडानेवाले, अभय दान देनेवाले और सबसे बड़े जगदीश्वर हैं । आप मन-बुद्धिकी भावनासे परे, शिवजीसे वन्दनीय, शिवभक्तोंके हितकारी, भूमिका उद्धार करनेवाले और ( गोवर्धन ) पर्वतको धारण करनेवाले हैं ॥ २॥ हे वरद | आपका शरीर मेघके समान श्याम है। आप वाणीके अधीश्वर, विश्वके आत्मा, रागरहित और वैकुण्ठ-मन्दिरमें नित्य विहार करनेवाले है । आप आकाशके समान सर्वत्र व्याप्त हैं, सबसे वन्दनीय, वामनरूप-धारी, सर्वसमर्थ, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मरूप और चिन्ताओंको दूर करनेवाले हैं ॥३॥ आप खभावसे ही सुन्दर, सुन्दर मुखवाले और शुद्ध मनवाले हैं। आप सदा शुभवरूप, निर्मल, सर्वज्ञ और स्वतन्त्र आचरण करने- वाले हैं । आप सब कुछ करनेवाले, सबका भरण पोषण करनेवाले, सबको जीतनेवाले, सबके हितकारी, सत्यसकल्प और कल्पका अन्त अर्थात् प्रलय करनेवाले हैं ॥ ४ ॥ आप नित्य हैं, मोह- रहित हैं, निर्गुण हैं, निरञ्जन हैं, निजानन्दरूप हैं तथा मुक्ति-