पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१०९

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विनय-पत्रिका ११२ पूँजी कमायी है। ऐसे संत जहाँ रहते हैं, वहाँ ब्रह्मा और शिवजीको साथ लेकर क्षीर-समुद्र-निवासी श्रीहरि भगवान् आप-से-आप दौड़े जाते हैं ॥५॥ (सत्सग कैसा है) वेद क्षीर-समुद्र है, उसका भली- भॉति विचार ही मन्दराचल है, समस्त मुनियों के समूह उसे मथनेवाले हैं। मथनेपर सत्सगरूपी सार-अमृत निकला । यह सिद्धान्त रुक्मिणी- पति भगवान् श्रीकृष्ण बतलाते हैं।॥ ६॥ सत-महात्माओंकी सत्-युक्ति शोक, सन्देह, भय, हर्ष, अज्ञान और वासनाओंके समूहको इस प्रकार नष्ट कर डालती है, जैसे श्रीरघुनाथजीके बाण राक्षसोंकी सेनाके समुदायको कौशल और बड़े वेगसे नष्ट कर देते हैं ॥ ७ ॥ हे रामजी ! अपने कर्मवश जहाँ-कहीं मेरा जन्म हो, जिस-जिस भी योनिमें अनेक सकट भोगता हुआ भटकूँ, वहाँ ही मुझे आपकी भक्ति और सतोंका सग सदा मिलता रहे । हे राम ! बस, मेरा एकमात्र यही आश्रय हो॥ ८ ॥ ससार-जनित (भौतिक, दैविक और दैहिक) तीन प्रकारकी प्रबल पीडाका नाश करनेके लिये आपकी भक्ति ही एकमात्र ओषधि है और अद्वैतदर्शी (चराचरमें एक आपको ही देखनेवाले ) भक्त ही वैध हैं। वास्तवमें संत और भगवान्में कभी किश्चित् भी अन्तर नहीं है-मलिन-बुद्धि तुलसीदास तो यही कहता है ॥ ९॥ [५८ ] देव- देहि अवलंच करकमल, कमलारमन, दमन-दुख, शमन-संताप भारी। अज्ञान-राकेश-ग्रासन विधुतुद, गर्व-काम-करिमत्त-हरि,दूपणारी ?