पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१३७

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विनय-पत्रिका १४० न होकर भी मैं इस पदवीको खीकार कर लेना हूँ) यह मेरा बड़ा भारी अपराध है, तो भी श्रीरामका मन मेरी तरफसे तनिक भी नहीं फिरा |॥ ३॥ हे तुलसी ! जैसे तिनका बहुत नीच होनेपर भी जल- के मस्तकपर चढ जाता है ( ऊपर उतराने लगता है), परन्तु जल उसे अपने द्वारा ही सींचकर पाला-पोसा हुआ समझकर डुबोता नहीं। (इसी प्रकार भगवान् श्रीरामजी समझते हैं ) ॥४॥ [७३] जागु, जागु, जीव जड़ जोहै जग-जामिनी । देह-गेह-नेह जानि जैसे धन-दामिनी ॥१॥ सोवत सपनेह सहै संसृति-संताप रे । वूडयोमृग-चारिखायोजेवरीकोसाँपरे॥२॥ कहे वेद-बुध, तू तो बुझि मनमाहि रे। दोप-दुख सपनेके जागेहीपैजाहि रे ॥३॥ तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे। रामनाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥४॥ भावार्थ-अरे मूर्ख जीव ! जाग जाग । इस संसाररूपी रात्रिको देख ! शरीर और घर कुटुम्बके प्रेमको ऐसा क्षणभगुर समझ जैसे बादलोंके बीचकी बिजली, जो क्षणभर चमककर ही छिप जाती है॥१॥ (जागनेके समय ही नहीं ) तू सोते समय सपनेमें भी संसारके कष्ट ही सह रहा है। अरे! तू भ्रमसे मृगतृष्णाके जलमें इवा जा रहा है और तुझे रस्सीका सर्प डस रहा है ॥ २॥ वेद और विद्वान् पुकार-पुकारकर कह रहे हैं, तू अपने मनमें विचारकर समझ ले कि खप्तके सारे दु.ख और दोप वास्तवमें जागनेपर ही नष्ट