पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४३

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विनय-पत्रिका १४६ सरद-बिधु-चदन, सुखसील, श्रीसदन, सहज सुंदर तनु, सोभा अगनित काम ॥ १॥ जग-सुपिता, सुमातु, सुगुरु,सुहित, सुमीत, सबको दाहिनो, दीनबन्धु, काहूको न वाम । आरतिहरन, सरनद, अतुलित दानि, प्रनतपालु, कृपालु, पतित-पावन नाम ॥२॥ सकल बिख-चंदित, सकल सुर-सेवित, आगम-निगम कहें रावरेई गुनग्राम । इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो, ___ न्यारो के गनिवो जहाँ गने गरीव गुलाम ॥ ३॥ भावार्थ-हे श्रीरामजी ! आप श्रीजानकीजीके जीवन, विश्वके प्राण, जगत्के हितकारी, जगत्के खामी, रघुकुलके नाथ और कमलके समान नेत्रवाले हैं । आपका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान है, सुख प्रदान करना आपका खभाव है। लक्ष्मीजी सदा आपमें निवास करती हैं, आपका शरीर स्वाभाविक ही परम सुन्दर है, जिसकी शोभा असंख्य कामदेवोंके समान है ॥१॥ आप जगत्के सुखकारी पिता, माता, गुरु, हितकारी मित्र और सबके अनुकूल है। आप दीनोंके बन्धु हैं, परन्तु बुरा किसीका भी नहीं करते। आप विपत्तिके हरनेवाले, शरण देनेवाले, अतुलनीय दानी, शरणागत-रक्षक और कृपालु हैं । आपका राम-नाम पतितोंको पावन कर देता है ॥२॥ सारा विश्व आपकी वन्दना करता है, समस्त देवता आपकी सेवा करते हैं और सभी वेद-शास्त्र आपके ही गुण-समूहोंका गान करते हैं। यह सब जानकर तुलसीदास