पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४४

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विनय-पत्रिका आपका गुलाम बना है, अब बतलाइये आप इसे अलग समझेंगे. या गरीब गुलामोंकी नामावलीमें गिनेंगे॥ ३ ॥ राग टोड़ी [७८] दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ । जाहि दीनता कहाँ हो देखौं दीन सोऊ ॥१॥ सुर, नर, मुनि, असुर, नाग साहिब तो घनेरे। (पै) तो लो जो लौंरावरेन नेकु नयन फेरे ॥२॥ त्रिभुवन तिहुँ काल विदित, वेद वदति चारी । आदि-अंत-मध्य राम ! साहवी तिहारी ॥३॥ तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो । सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो ॥४॥ पाहन-पसु, बिटप-विहँग अपने करि लीन्हे । महाराज दसरथके ! रंक राय कीन्हे ॥ ५॥ तू गरीवको निवाज, हाँ गरीब तेरो । वारक कहिये कृपालु ! तुलसिदास मेरो ॥ ६॥ भावार्थ-हे श्रीरामजी ! दीनोंपर दया करनेवाला और उन्हें (परम सुख) देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। मैं जिसको अपनी दीनता सुनाता हूँ, उसीको दीन पाता हूँ। (जो स्वयं दीन है वह दूसरेको क्या दे सकता है।)॥१॥ देवता, मनुष्य, मुनि, राक्षस, नाग आदि मालिक तो बहुतेरे हैं, पर वहींतक हैं जबतक आपकी नजर तनिक भी टेढ़ी नहीं होती। आपकी नजर फिरते ही वे सब भी छोड़ देते हैं ॥२॥ तीनों लोकोंमें