पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१७६

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- १८१ विनय-पत्रिका मर्यादा रखनेके लिये अपने (पतितपावन) प्रणको स्मरण करके इस कलिकालरूपीसर्पसे डसे हुएकोभीश्रीरामने अपनी शरणमें ले लिया।६॥ बिहाग "बिलावल [१०७ ] है नीको मेरो देवता कोसलपति राम । सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥१॥ सिय-समेत सोहत सदा छवि अमित अनंग। भुज विसाल सर धनु घरे, कटि चारु निषंग ॥२॥ बलिपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति । सुमिरत ही मानै भलो, पावन सव रीति ॥ ३॥ देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन-चंधु । गुन गहि, अध-औगुन हरै अस करुनासिंधु ॥४॥ देस-काल-पूरन सदा बद वेद पुरान । सवको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जान ॥ ५॥ को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव । तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६॥ भावार्थ-कोसलपति श्रीरामचन्द्रजी मेरे सर्वश्रेष्ठ देवता हैं, उनके कमलके समान सुन्दर नेत्र हैं और उनका शरीर परम सुन्दर श्याम- वर्ण है ॥ १॥ श्रीसीताजीके साथ सदा शोभायमान रहते हैं, असंख्य कामदेवोंके समान उनका सौन्दर्य है । विशाल भुजाओंमें धनुष-बाण और कमरमें सुन्दर तरकस धारण किये हुए हैं ॥ २ ॥ वे बलि या पूजा कुछ भी नहीं चाहते, केवल एक 'प्रेम' चाहते हैं । स्मरण करते