पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१८२

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१८७ विनय-पत्रिका परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहि वनि आई। तौ कत विप्र, व्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥२॥ काल. करम गति अगति जीवकी, सव हरि! हाथ तुम्हारे । सोइ कछु करहु,हरहु ममता प्रभु ! फिरउँन तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥ जो तुम तजहु, भजों न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे । मन-वच करम नरक-सुरपुर जहँ तह रघुवीर निहोरे ॥ ४॥ जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सो करौं ढिठाई । तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ॥५॥ भावार्थ-हे केशव ! हे खामी ! ऐसा क्या कारण ( अपराध ) है जिस अपराधसे आपने मुझे दुष्ट समझकर एक अनजानकी तरह छोड़ दिया ?॥१॥ (यदि आप मुझे तो दुष्ट समझते हैं और ) जिनके आचरण बडे ही पवित्र हैं, जो कोमलहृदय संत हैं, उन्हींको अपनाते हैं तो फिर अजामिल, वाल्मीकि और गणिकाका उद्धार क्यों किया था ? क्या उनसे आपकी कोई खास रिस्तेदारी थी ॥२॥ हे हरे ! इस जीवका काल, कर्म, सुगति, दुर्गति, सब कुछ आपहीके हाथ है; अतः हे प्रभो । मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं आपको भूलकर इधर-उधर भटकता न फिरूं ॥ ३ ॥ यदि आप मुझे छोड़ भी देंगे, तो भी मैं तो आप- हीको भनूँगा, दूसरे किसीको अपना प्रभु कभी नहीं मानूंगा, यह मेरा अटल प्रण है; आप नरक या स्वर्गमें जहाँ कहीं भी भेजेंगे; वहीं हे रघुनाथजी ! मन, वचन और कर्मसे मैं आपहीकी विनय करता रहूँगा ॥ ४ ॥ हे नाथ ! यद्यपि यह उचित नहीं है कि मैं प्रमुके साथ ऐसी ढिठाई करूँ, परन्तु रात-दिन आपकी निष्ठुरता