पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१९८

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२०३ विनय-पत्रिका मसन,वसन,पसु-वस्तु विविध विधि,सव मनि महँ रह जैसे। सरग, नरक चर-अचर लोक बहु, वसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥ विटप-मध्य पुतरिका, सूत महँ मंचुकि विनहिं बनाये। मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥ ४॥ रघुपति-भगति-चारि-छालित चित, बिनु प्रयास ही सूझै। तुलसिदास कह चिद-विलास जग बूझत चूझत बूझै ॥५॥ भावार्थ-यदि हमारा मन विकारोंको छोड़ दे, तो फिर द्वैतभावसे उत्पन्न संसारी दुःख, भ्रम और अपार शोक क्यों हो १ (यह सब मनके विकारों के कारण ही होते हैं)॥१॥ शत्रु, मित्र और उदासीन इन तीनोंकी मनमें ही हठसे कल्पना कर रक्खी है । शत्रुको सौंपके समान त्याग देना चाहिये, मित्रको सुवर्णकी तरह ग्रहण करना चाहिये और उदासीनकी तृणकी तरह उपेक्षा कर देनी चाहिये। ये सब मनकी ही कल्पनाएँ हैं॥२॥ जैसे (बहुमूल्य) मणिमें भोजन, वस्त्र, पशु और अनेक प्रकारकी चीजें रहती हैं वैसे ही खर्ग, नरक, चर, अचर और बहुत-से लोक इस मनमें रहते हैं। भाव यह किछोटी-सी मणिके मोलसे जो चाहे सो खाने, पीने, पहननेकी चीजें खरीदी जा सकती हैं, वैसे ही इस मनके प्रतापसे जीव वर्ग-नरकादिमें जा सकता है।॥ ३॥ जैसे पेडके बीचमें कठपुतली और सूतमे वस्त्र, बिना बनाये ही, सदा रहते हैं उसी प्रकार इस मनमें भी अनेक प्रकारके शरीर लीन रहते हैं, जो समय पाकर प्रकट हो जाते हैं ॥ ४॥ इस मनके विकार कब छूटेंगे, जब श्रीरघुनाथजीकी भक्तिरूपी जलसे धुलकर चित्त निर्मल हो जायगा, तब अनायास ही सत्यरूप परमात्मा दिखलायी देंगे। किन्तु तुलसीदास कहते हैं, इस चैतन्यके विलासरूप जगत्का सत्य तत्त्व परमात्मा समझने-समझते ही समझमें आवेगा ॥५॥