पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१९९

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विनय-पत्रिका २०४ [१२५] मैं केहि कहाँ विपति अतिभारी। श्रीरघुवीर धीर हितकारी ॥१॥ मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ वसे आइ बहु चोय ॥२॥ अति कठिन करहिं वरजोरा । मानहिं नहिं विनय निहोरा ॥३॥ तम, मोह, लोभ, अहंकारा । मद,क्रोध,योध-रिपु मारा ॥४॥ अति करहिं उपद्रव नाथा । मरदहि मोहि जानि अनाथा ॥५॥ मैं एक, अमित बटपाय। कोउ सुनै न मोर पुकारा ॥६॥ भागेहु नहिं नाथ ! उवारा । रघुनायक, करहु सँभारा ॥७॥ कह तुललिदास सुनु रामा। लूटहिं तसकर तव धामा ॥८॥ चिंता यह मोहिं अपारा । अपजस नहिं होइ तुम्हाय ॥९॥ भावार्थ-हे रघुनाथजी ! हे धैर्यवान् (बिना ही उकताये) हित करनेवाले ! मैं तुम्हें छोड़कर, अपनी दारुण विपत्ति और किसे सुनाऊँ । ॥१॥ हे नाथ! मेरा हृदय है तो तुम्हारा निवास स्थान, परन्तु आजकल उसमें बस गये हैं आकर बहुत-से चोर ! तुम्हारे मन्दिरमें चोरोने घर कर लिया है॥२॥ (मैं उन्हें निकालना चाहता है, परन्तु वे लोग बड़े ही कठोरहृदय हैं) सदा जबरदस्ती ही करते रहते हैं । मेरी विन निहोरा कुछ भी नहीं मानते॥३॥ इन चोरोंमें प्रधान सात हैं-अज्ञान, मोह, लोभ, अहकार, मद, क्रोध और ज्ञानका शत्रु काम ॥ ४॥ नाय ! ये सब बडा ही उपद्रव कर रहे हैं, मुझे अनाथ जानकर कुचल डालते हैं ॥५॥ मैं अकेला हूँ और ये उपद्रवी चोर अपार हैं। कोई मरा पुकारतक नहीं सुनता॥६॥ हे नाथ | भाग जाऊँ तो भी इनसे पिण्ड छूटना कठिन है, क्योंकि ये पीछे लगे ही रहते हैं। अब हे रघुनाथजा! आप ही मेरी रक्षा कीजिये ॥७॥ तुलसीदास कहता है कि हे राम !