पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२००

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२०५ विनय-पत्रिका इसमें मेरा क्या जाता है, चोर तुम्हारे घरको लूट रहे हैं ।। ८ ।। मुझे तो इसी वातकी बड़ी चिन्ता लग रही है कि कहीं तुम्हारी बदनामी न हो जाय ( आपका भक्त कहलानेपर भी मेरे हृदयके सात्त्विक रनोंको यदि काम, क्रोध आदि डाकूलूट ले जायेंगे तो इसमें आपकी ही बदनामी होगी। अतएव इस अपने घरकी आप ही सम्हाल कीजिये)॥९॥ [१२६] मन मेरे, मानहि सिख मेरी जो निजुभगति चहहरि केरी ॥१॥ उर आनहि प्रभु-कृत हितजेते।सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥२॥ दुख-सुख अरु अपमान बड़ाई। सबसमलेखहि विपति बिहाई ॥३॥ सुनुसठ काल-ग्रसित यह देही।जनि तेहि लागि विदूषहि केहीnen तुलसिदास विनु असिमति आये। मिलहिं नराम कपट-लौ लाये ॥ भावार्थ-हे मेरे मन ! यदि तू अपने हृदयमें भगवान्की भक्ति चाहता है, तो मेरी सीख मान ॥ १॥ भगवान्ने (गर्भवाससे लेकर अबतक ) तेरे ऊपर जो ( अपार ) उपकार किये हैं उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर बडी सावधानीसे तत्पर होकर उनकी सेवा कर ॥ २॥ सुख-दुःख, मान-अपमान सबको समान समझ; तभी तेरी विपत्ति दूर होगी ॥ ३ ॥ अरे दुष्ट ! इस शरीरको तो कालने अस ही रक्खा है, इसके लिये किसीको दोष मत दे॥ ४॥ तुलसी- दास कहता है कि ऐसी बुद्धि हुए बिना, केवल कपट-समाधि लगानेसे श्रीरामजी कभी नहीं मिलते, वे तो सच्चे प्रेमसे ही मिलते हैं ॥ ५॥ [१२७] मैजानी,हरिपद-रति नाहीं। सपनेहुँ नहिं विराग मन माहीं ॥ १॥ जे रघुबीर चरन अनुरागे । तिन्ह सव भोग रोग समत्यागे ॥२॥