पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०

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विनय-पत्रिका वे सब आपके चरणोंसे विमुख रहते हुए करोडों कल्प बीत जानेपर भी संसार-सागरका पार नहीं पा सकते ॥३॥ सर्प आपके भूषण हैं, दूषणको मारनेवाले (और सारे दोषोंको हरनेवाले) भगवान् श्रीराम- के आप सेवक हैं, आप देवाधिदेव हैं, त्रिपुरासुरका संहार करनेवाले हैं। हे शंकर ! आप मोहरूपी कोहरेका नाश करनेके लिये साक्षात् सूर्य हैं, शरणागत जीवोंका शोक और भय हरण करनेवाले हैं ॥४॥ हे काशीपते ! हे श्मशाननिवासी !! हे पार्वतीके मनरूपी मानसरोवरमें विहार करनेवाले राजहंस || तुलसीदासको श्रीहरिके श्रेष्ठ चरण- कमलोंमें अनपायिनी भक्तिका वरदान दीजिये ॥५॥ राग धनाश्री [१०] मोह-तम-तरपि, हर, रुद्र, शंकर, शरण, हरण, मम शोक लोकाभिराम। बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि- लावण्य-धामं॥ कंबु-कुंदेंदु-क-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै। भस्मसर्वांग अर्धाग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै ॥२॥ मौलिसंकुल जटा-मुकुट विधुच्छटा,तटिनि-वर-वारिहरि-चरण-पूतं श्रवण कुंडल, गरल कंठ, करुणाकंद, सचिदानंद वंदेऽवधूतं॥३॥ शुल-शायक-पिनाकासि-कर शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज, वृषभ-यानं। ज्याघ्र-गज-चर्म-परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज- सेव्यमान।