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पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०१

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विनय-पत्रिका २०६ काम-भुजंग डसत जव जाही। विषय-नींवकटुलगतन ताही ॥३॥ असमंजस अस हृदय विचारी। बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥४॥ जब कब राम-कृपा दुख जाई । तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥५॥ भावार्थ-मैंने जान लिया है कि श्रीहरिके चरणों में मेरा प्रेम नहीं है; क्योंकि सपनेमें भी मेरे मनमें वैराग्य नहीं होता (ससारके भोगोंमें वैराग्य होना ही तो भगवच्चरणों में प्रेम होनेकी कसौटी है ) ॥१॥ जिनका श्रीरामके चरणों में प्रेम है, उन्होंने सारे विषय-भोगोंको रोगकी तरह छोड दिया है ॥ २ ॥ जब जिसे कामरूपी साँप डस लेता है, तभी उसे विषयरूपी नीम कडवी नहीं लगती ॥ ३॥ ऐसा विचारकर हृदयमें वडा असमंजस हो रहा है कि क्या करूँ ! इसी विचारसे मेरे मनमें नित नया सोच बढ़ता जा रहा है ॥ ४ ॥ हे तुलसीदास ! और कोई उपाय नहीं है; जब कभी यह दुःख दूर होगा, तो बस श्रीराम-कृपासे ही होगा ।। ५ ॥ [१२८] सुमिरु सनेह-सहित सीतापति रामचरनतजिनहिनआनिगति।। जप,तप,तीरथ,जोगसमाधी। कलिमति-बिकलन कछु निरुपाधी।। करतहुँसुकृतनपाप सिराही रकतवीज जिमि बादत जाहीं ॥३॥ हरति एक अघ-असुर-जालिका|तुलसिदासप्रभु-कृपा-कालिका॥४॥ ___ भावार्थ-रे मन ! प्रेमके साथ श्रीजानकी-वल्लभ रामजीका स्मरण कर; क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर तुझे और कहीं गति नहीं है ॥ १॥ जप, तप, तीर्थ, योगाभ्यास, समाधि आदि साधन हैं। परन्तु कलियुगमें जीवोंकी बुद्धि स्थिर नहीं है, इससे इन साधनों से कोई भी विघ्नरहित नहीं रहा ॥ २॥ आज पुण्य करते भी ( बुद्धि