पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२१३

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विनय-पत्रिका २१८ [३] तै निज करम डोरि उढ़ कीन्हीं। अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं ॥ ताते परबस परयो अभागे । ता फल गरभ-यास-दुग आगे ॥ आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ। सिर हेठ, ऊपर चरन, संकट घात नदि पूल कोऊ ॥ सोनित-पुरीप जो मूत्र-मल कृमि, फर्दमावृत सोवई । कोमल सरीर, गॅभीर वेदन, सीस धुनि धुनि रोगई। तू निज करम-जाल जहं घेरो। श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो । वहुविधि प्रतिपालन प्रभुकीन्हा। परम कृपालग्यान तोहि दीन्हो । तोहि दियो ग्यान-विवेक, जनम अनेकफी तव सुधि भई । तेहि ईसकी ही सरन, जाकी विपम माया गुनमई ॥ जेहि किये जीव-निकाय चस,रसहीन,दिन-दिनयति नई । सो करौवेगिसँभारिश्रीपति विपतिमह जेहि मति दई ॥ [५] पुनि बहुविधिगलानि जिय मानी। अव जग जाइ भजीचक्रपानी ॥ ऐसेहि करि विचार चुप साधी। प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी ॥ प्रेरयो जो परम प्रचंड मारुत, कट नाना ते सहो। सोग्यान, ध्यान, विराग, अनुभव जातना पावक दह्यो । अति खेद व्याकुल, अलप चल, छिनएकबोलिनआवई । तव तीव्र कष्ट न जान कोउ, सव लोग हरपित गावई ॥ [६] वाल.दसा जेते दुख पाये । अति असीम, नहिं जाहिं गनाये ॥ छुघा-व्याधि-बाधा भइ भारी। चेदन नहिं जानै महतारी ॥