पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२२०

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२२५ विनय-पत्रिका और शूल सता रहे हैं, सिर हिल रहा है, इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट हो गयी है । तेरा बोलना किसीको अच्छा नहीं लगता, घरकी रखवाली करनेवाला कुत्ता भी तेरा निरादर करता है अथवा कुत्तेसे भी बढकर तेरा निरादर होने लगा है । (कुत्तेको दूरसे रोटी फेंकते हैं, पर उसे समयपर तो दे देते हैं, तेरी उतनी भी संभाल नहीं ) अधिक क्या, तू खाने-पीनेतकको नहीं पाता । बुढापेमे ऐसी दुर्दशा होनेपर तुझे वैराग्य नहीं होता ? इस दशामे भी तू तृष्णाकी तरङ्गोंको बढ़ाता ही जाता है। [९] ये तो तेरे एक जन्मके कुछ थोड़े-से कष्ट गिनाये गये हैं, ऐसे अनेक बड़े-बड़े जन्मोंकी सबकी कथा तो कौन कह सकता है। सदा चार खानों (पिण्डज, अण्डज, स्वेदज, उद्भिज ) में घूमना पडता है । अब भी तू मनमे विचार नहीं करता ! अब भी विचार- कर अज्ञानको छोड़ दे और भक्तोंको सुख देनेवाले भगवान् श्रीरामजीका भजन कर । वे दुस्तर भव-सागरके लिये जहाजरूप हैं, दू उन सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले देवपति भगवान्का भजन कर । वे बिना ही हेतु दया करनेवाले हैं, बडे ही उदार हैं और इस अपार मायासे तारनेवाले हैं। वे मोक्षके, संसारके, लक्ष्मीके और इन प्राणों के नाथ हैं एवं मुक्तिके कारण हैं। [१०] श्रीरघुनायजीकी भक्ति सुलभ और सुखदायिनी है । वह । संसारके नीनो ताप, शोक और भयको हरनेवाली है। किन्तु वह वि०प०१५--