२३५ विनय-पत्रिका भावार्थ-हे रघुकुलश्रेष्ठ रामचन्द्रजी ! मैं किस प्रकार तुमसे विनय करूँ ? अपने अनेक अघों [पापों ] की ओर देखकर और तुम्हारा अनघ (पापरहित ) नाम विचारकर डर रहा हूँ॥१॥ दूसरेके दुःखसे दुखी तथा दूसरेके सुखसे सुखी होना सतोंका शील-स्वभाव है, उसे तो मैं कभी हृदयमें धारण ही नहीं करता । प्रत्युत दूसरोंकी विपत्ति देखकर परम सुखी होता हूँ और दूसरोंकी सम्पत्ति सुनकर तो विना ही आगके जला करता हूँ॥२॥ भक्ति, वैराग्य, ज्ञान आदिके साधनोंका उपदेश देता हुआ मै लोगोंको भॉति-भाँतिसे ठगता फिरता हूँ और शिवके सर्वख तथा आनन्दके धाम तुम्हारे राम-नामको बेच- बेचकर नरकमें ले जानेवाले ( पापी ) पेटको भरता हूँ॥ ३ ॥ मनमें जानता हूँ कि मेरे पाप समुद्रके समान अपार हैं; परन्तु जब दूसरे किसीके मुखसे अपने पापोंके लिये यह सुनता हूँ कि मेरेमे पानीकी बूंदके बराबर भी पाप हैं तब उससे लड़ने लगता हूँ। भाव यह है कि महापापी होनेपर भी लोगोंके मुखसे परम पुण्यात्मा ही कहलाना चाहता हूँ, परन्तु दूसरोंके धूलके कणके समान मामूली दोषोंको भी सुमेरुपर्वतके समान बढ़ाकर बतलाता हूँ। और उनके पर्वतके समान ( महान् ) गुणोंको धूलके समान तुच्छ बतलाकर उनका तिरस्कार करता हूँ ( मेरी ऐसी करनी है )॥४॥ भाँति-भौतिके भेष बना-बनाकर दिन-रात जिस-किसी भी उपायसे दूसरोंका धन हरण करता हूँ। कभी एक पल भी स्थिरचित्त होकर प्रेमसे तुम्हारे चरण- कमलोंका स्मरण नहीं करता ॥ ५॥ यदि तुम मेरे आचरणोंपर विचार करने लगोगे तब तो मुझे करोड़ों कल्पतक संसाररूपी कड़ाहमें औंट औंटकर जल मरना पड़ेगा, जन्म-मरणसे कभी नहीं छूटूंगा ।
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२३०
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