विनय-पत्रिका २३६ पर यदि तुम एक वार कृपादृष्टि कर दोगे तो हे प्रभो ! में तुलसीदास उसीके प्रभावमे इस ससार-सागरको गायके खुरके समान सहज ही पार कर जाऊँगा ॥६॥ [ १४२ ] सकुचत हो अति राम कृपानिधि क्यों करि विनय सुनावी। सकल धग्म विपरीत करन, केहि भॉनि नाथ ! मन भावों ॥१॥ जानत हो हरि रूप चराचर, में हटि नयन न लाची । अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पटावी ॥२॥ नवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझी, समुझावी। तिन्ह लवननि परदोप निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावों ॥ ३ ॥ जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, विनु प्रयास सुस पानी । तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यो रटि रटि जनम नसावा ॥ ४ ॥ 'करहु हृदय अति विमल वसहि हरि, कहि कहि सबहिं सिखायो । हो निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली वसावी ॥ ५॥ जो तनु धरि हरिपद साहिं जन, सो विनु काज गॅवावी।। हाटक-घट भरि धरयो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावी ॥ ६॥ मन-क्रम-वचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावी। पर प्रेरित इरपा वस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावी ॥ ७॥ विप्रद्रोह जनु वाँटः परयो हठि सवसों पैर बढ़ावों । ताहपर निज मति-बिलास सव संतन माँझ गनावी ॥ ८॥ निगम सेप सारद निहोरि जो अपने दोप कहाचौं । तो न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, पहा एक मुख गाची ॥९॥ जो करनी अपनी विचारों, तौ कि सरन ही आवौं । मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥१०॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२३१
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