विनय-पत्रिका राग नट [१५८ ] कैसे देउँ नाहि खोरि। काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि ॥१॥ वहुत प्रीति पुजाइवे पर, पूजिवे पर थोरि । देत सिख सिखयो न मानत, मूढ़ता असि मोरि ॥२॥ किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि । संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि ॥३॥ करौं जो कुछ धरौ सचि-पचि सुकृत सिला वटोरि । पैठि उर वरवस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि ॥४॥ लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों गरे आसा-डोरि । वात कहाँ वनाइ वुध ज्यों, बर विराग निचोरि ॥५॥ एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत, लाज अँचई घोरि । निलजता पर रीझि रघुवर, देहु तुलसिहि छोरि ॥ ६॥ भावार्थ-खामीको कैसे दोष दूँ ? हे हरे । मेरा मन तुम्हारी भक्तिको छोड़कर कामनाओंमें फँसा हुआ इधर-उधर भटका करता है॥१॥ अपने पुजानेमें तो मेरा बडा प्रेम है, (सदा यही चाहता हूँ, कि लोग मुझे ज्ञानी भक मानकर पूजा करें, ) किन्तु तुम्हें पूजनेमें मेरी बहुत कम प्रीति है । दूसरोंको तो खूब सीख दिया करता हूँ, पर स्वयं किसीकी शिक्षा नहीं मानता । मेरी ऐसो मूर्खता है ॥ २ ॥ जिन-जिन पापोंको मैंने बड़े अनुरागसे किया था, उन्हें तो हृदयमें छिपाकर रखता हूँ। पर कभी किसी अच्छे संङ्गके प्रभावसे ( बिना ही प्रेम ) मुझसे जो कोई अच्छे काम बन गये हैं,
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