पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२७२

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- - २७७ विनये-पत्रिका [ १७०] यो मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो। ज्यो छल छाँहि सुभाव निरंतर रहत विषय अनुराग्यो॥ १॥ ज्यों चितई परनारि सुने पातक-प्रपंच घर-घरके। त्यो न साधु, सुरसरि-तरंग-निर्मल गुनगन रघुबरके ॥ २॥ ज्यों नासा सुगंधरस-चस, रसना षटरस-रति मानी। राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यो न ललकि ललचानी ॥ ३ ॥ चंदन-चंदवदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो। त्यो रघुपति-पद-पदुम-परसको तनु पातकी न तरस्यो॥ ४॥ ज्यो सव भाँति कुदेव कुठाकुर सेये वपु वचन हिये हूँ। त्यो न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ॥ ५॥- चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग वागे। राम-सीय-आत्रमनि चलत त्यों भये न समित अभागे॥६॥ सकल अंग पद-विमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है। है तुलसिर्हि परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है ॥ ७॥ भावार्थ-मेरा मन आपसे ऐसा कभी नहीं लगा, जैसा कि वह कपट छोड़कर, स्वभावसे ही निरन्तर विषयोंमें लगा रहता है॥१॥ जैसे मैं परायी स्त्रीको ताकता फिरता हूँ, घर-घरके पापभरे प्रपञ्च सुनता हूँ, वैसे न तो कभी साधुओंके दर्शन करता हूँ और न गङ्गाजीकी निर्मल तरङ्गोंके समान श्रीरघुनाथजीकी गुणावली ही सुनता हूँ॥२॥ जैसे नांक अच्छी-अच्छी सुगन्धके रसके अधीन रहती है और जीभ छ. रसोंसे प्रेम करती है, वैसे यह नाक भगवान्पर चढ़ी हुई मालाके लिये और जीभ भगवत्-प्रसादके लिये कभी ललक-लटककर नहीं ललचाती ॥ ३॥ जैसे यह अधम शरीर चन्दन, चन्द्रवदनी युवती