पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- २७९ विनय-पत्रिका पल-पलके उपकार रावरे जानि वृद्धि सुनि नीके। . भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके ॥ ५ ॥ खामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज सादोहाई। मैं भति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरुआई ॥ ६ ॥ एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं । तुलसी अपनी ओर जानियत, प्रभुहि कनौड़ो भरिहें ॥ ७ ॥ भावार्थ-हे नाथ । मुझे तो आप यमकी यातनामें ही डाल दीजिये ( नरकोंमें ही भेजिये ); क्योंकि हे श्रीरामजी ! मैं ऐसा दुष्ट हूँ कि मैंने आप-सरीखे पवित्र और सुहृद् ( बिना ही कारण हित करनेवाले ) खामीको पीठ दे रक्खी है॥ १॥ गर्भमें आपने माता- पिताके समान दस महीनेतक मेरा पालन-पोषण कर (कितना) हित किया । मुझ मूर्खको आपने शुद्ध ज्ञान, मुझ दुष्टको सुन्दर शील और मुझ अपराधीको आदर दिया । ( इतनेपर भी मैं आपका भजन न करके आपसे उल्टा ही चलता हूँ ) ॥ २ ॥ मैं अन्तर्यामी प्रभुके साथ भी कपट करता हूँ, घट-घटमें रमनेवाले सर्वव्यापीसे अपने पाप छिपाता हूँ। (परन्तु धन्य है आपको कि) ऐसे दुर्बुद्धि और नीच नौकरपर भी हे रामजी ! आपने अपना मन प्रतिकूल नहीं किया ॥३॥ पेट तो भरता हूँ आपका दास कहाकर, किन्तु हृदयको विषयोंके हाथ बेंच रक्खा है तो भी मुझ-सरीखे ठगपर भी हे कृपालु ! आपने निष्कपट भावसे कृपा ही की है ॥ ४ ॥ आपके पल-पलके उपकारोंको भलीभॉति जानकर, समझकर और सुनकर भी मेरा चजसे भी अधिक कठोर चित्त कमी श्रीजानकीनाथजीके-प्रेममे नह भिदा ॥ ५॥ मैंने जब अपनी बुद्धिरूपी तराजूपर एक ओर खामीकी