२८१ विन्य-पत्रिका उत्पन्न हुई (क्रोधकी ) आगमें न जलँगा। अभिमान छोड़कर सबमें समबुद्धि रहूँगा और मनको शान्त रक्खूगा । दूसरोंकी स्तुति-निन्दा कुछ भी नहीं करूँगा (सदा आपके चिन्तनमें लगे हुए मुझको दूसरोंकी स्तुति-निन्दाके लिये समय ही नहीं मिलेगा)॥३॥ शरीर- सम्बन्धी चिन्ताऍ छोड़कर सुख और दुःखको समान भावसे सहूँगा । हे नाथ ! क्या तुलसीदास इस ( उपर्युक्त) मार्गपर रहकर कभी अविचल हरि-भक्तिको प्राप्त करेगा ? ॥ ४ ॥ [१७३] नाहिन आवत आन भरोसो। यहि कलिकाल सकल साधनतरु है नम-फलनि फरो सो॥१॥ तप, तीरथ, उपवास, दान, मख जेहि जो रुचै करो सो। पायेहि पै जानिवो करम-फल भरिभरि वेद परोसो ॥२॥ आगम-विधि जप-जाग करत नर सरत न काज खरो सो। सुख सपनेहुन जोग-सिधि-साधन, रोग-बियोग धरोसो ॥३॥ काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह मिलि ग्यान विराग हरोसो। बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो॥४॥ बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो। । गुरु को राम-भजन नीको मोहि लगत रान-डगरोसो॥५॥ तुलसी विनु परतीति-प्रीति फिरि-फिरि पचि भरैमरोसो। रामनाम-चोहित, भव-सागर चाहै तरन तरो सो॥६॥ भावार्थ-(श्रीराम-नामके सिवा ) मुझे दूसरे किसी (साधन) पर भरोसा नहीं होता। इस कलियुगमें सभी साधनरूपी वृक्षोंमें केवल परिश्रमरूपी फल ही फले-से दिखायी देते हैं अर्थात् उन साधनों में लगे रहनेसे केवल श्रम ही हाथ लगता है, फल कुछ नहीं
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