पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२७७

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- विनय पत्रिका २८२ होता ॥ १॥ तप, तीर्थ, व्रत, दान, यज्ञ आदि जो जिसे अच्छा लगे सो करे । किन्तु इन सब कर्मोका फल पानेपर ही जान पड़ेगा, यद्यपि वेदोंने (पत्तल ) भर-भरकर फलोंको परोसा है । भाव यह कि वेदोंमें इन कर्मोकी वडी प्रशसा है; परन्तु कलियुग इन्हें सफल ही नहीं होने देगा तब फल कहाँसे मिलेगा ? ॥ २॥ शास्त्रकी विधिसे मनुष्य जप और यज्ञ करते हैं। किन्तु उनसे असली कार्यकी सिद्धि नहीं होती। योग-सिद्धियोंके साधनमें सुख स्वप्नमे भी नहीं है। (क्रिया जाननेवालोंके अभावसे ) इस साधनमें भी रोग और वियोग प्रस्तुत हैं। (शरीर रोगी हो जाता है, जिसके फलस्वरूप प्रियजनोंसे विछोह हो जाता है।)॥ ३॥ काम, क्रोध, मद, लोभ और मोहने मिलकर ज्ञान-वैराग्यको तो हर-सा लिया है और संन्यास लेनेपर तो यह मन ऐसा बिगड जाता है, जैसे पानीके डालनेसे कचा धडा गल जाता है ॥ ४ ॥ मुनियोंके अनेक मत हैं, छः दर्शन हैं) और पुराणों में नाना प्रकारके पन्य देखकर जहाँ-तहाँ झगड़ा-सा ही जान पडता है । गुरुने मेरे लिये राम-भजनको ही उत्तम बतलाया है और मुझे भी सीधे राज-मार्गके समान वही अच्छा लगता है ।। ५॥ हे तुलसी विश्वास और प्रेमके बिना जिसे बार-बार पच-पचकर मरना हो, वह भले ही मरे, किन्तु मसार-सागरसे तरनेके लिये तो राम-नाम ही जहाज है। जिसे पार होना हो, वह (इसपर चढ़कर ) पार हो जाय ॥६॥ [१७४] जाके प्रिय न राम-बैदेही। तजिये ताहिकोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥१॥ सो छोड़िये